Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी


अंगूठी की खोजः
3


यशोदा को पढ़ने-लिखने की ओर से उतनी ही अरुचि थी, जितनी मेरी उस ओर रुचि थी। गृहस्थी के कामों में भी वह विशेष निपुण न थी। इसके अतिरिक्त न उसमें रूप था न आकर्षण और न बातचीत का ढंग ही सुरुचि के अनुकूल था। उससे साधारण-सी बात करते समय भी मैं प्रायः झल्ला उठता, जिससे मुझे तो म्रानसिक कष्ट होता ही, साथ ही यशोदा को बिना कारण ही मेरी डॉट सुननी पड़ती, और उसे कष्ट होता। इसलिए मैंने घर जाना बहुत कम कर दिया। प्रायः जब मैं पढ़ते-पढ़ते थक जाता तब मित्रों के घर और जब किसी कारणवश मित्र लोग भी घर पर न मिलते, तब मुझे कंपनी बाग के इसी कोने में हरी-हरी दूब पर ही आश्रय मिलता था।

कभी-कभी उसी दूब पर पड़े-पड़े मैं कब सो जाता, पता नहीं। पक्षियों का कलरव सुनकर ही मेरी आँख खुलती मेरे घर वाले इन बातों को बहुत अच्छी तरह जानते थे। अपने विवाह के बाद से मैं बहुत विद्रोही स्वभाव का हो उठा था। इसलिए न तो वे लोग मुझे खोजने का प्रयत्न करते, और न मेरी दिनचर्या या तपश्चर्या में बाधा डालकर मुझे छेड़ते थे। वे जानते थे कि यदि मुझे उन्होंने छेड़ा, तो इसका परिणाम किसी प्रकार भी अच्छा न होकर, बुरा ही हो सकता है।

आज इसी प्रकार अपने जीवन से घबराकर, न जाने किस विचारधारा में डूबा हुआ, मैं लॉन पर पड़ा था। वे युवतियाँ घूमती हुई फिर लौटीं, और मेरे पास ही पड़ी हुई बेंच पर बैठ गईं।
एक बोली, यहाँ तो कोई पड़ा है जी।
दूसरी ने कहा, ऊँह! रहने भी दो, पड़ा है तो हमारा क्या कर लेगा। आओ जरा बैठ लें, फिर चलेंगे।

तीसरी उठकर खड़ी हो गई। स्वर को कुछ धीमा करके बोलो, “हमारा कर तो कुछ न लेगा। पर हमारी बातचीत की आजादी में तो बाधा आएगी। चलो, कहीं और बैठें। इतना बड़ा तो बगीचा पड़ा है। क्या यही जगह है?" वह उठी। उठकर जाने लगी। है

एक दूसरी ने उसका हाथ पकड़कर खींचा। उसे बैठाते हुए बोली, 'बैठो भी कहाँ जाओगी? अब तो वह समय है, जबकि स्त्रियों को भी पुरुषों के समान अधिकार दिए जाने की हर जगह चर्चा है। फिर उस अधिकार का हमीं क्‍यों न उपयोग करें? विरले ही पुरुष स्त्रियों से ऐसे दूर-दूर भागते होंगे। अन्यथा पुरुषों का तो स्वभाव होता है कि जहाँ स्त्रियों को देखा, फिर चाहे काम हो चाहे न हो, उस ओर जाएँगे अवश्य। यह रेलवे स्टेशन का, स्नान-घाटों का, सड़कों और दुकानों का हमारा प्रतिदिन का अनुभव है। यदि ठीक न कहती होऊँ तो मेरी बात न मानो! और तुम ऐसे व्यक्ति से, जिसके विषय में ठीक-ठीक पता भी नहीं कि स्त्री है कि पुरुष, ऐसे दूर भागी जा रही हो जैसे कोई संक्रामक बीमारी हो', कहते-कहते उसने फिर उसका हाथ बैठाने के लिए खींचा ।
किंतु वह बैठी नहीं, चिल्ला पड़ी, छोड़ दो सरला! तुम्हारे खींचने से मेरी अँगूठी भी गिर गई। एक तो वैसे ही मैं उसे नहीं पहिनती । आज ही पहिनी और गिर गई।

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